देश की न्यायिक प्रणाली की कार्यकुशलता और याचिकाकर्ता की दूरदर्शिता का एक शानदार नमूना आज देखने को मिला। मामला था मुन्ने आगा का जो अपनी हैदरी टास्क फोर्स की ओर से किसी शिकायत को लेकर दौड़े-दौड़े हाईकोर्ट पहुंचे।
यह मामला कोर्ट नंबर-3 में माननीय शेखर बी. सराफ, न्यायमूर्ति और माननीय मंजीव शुक्ला, न्यायमूर्ति की खंडपीठ के समक्ष आया। कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई, माहौल एकदम गंभीर था। एक तरफ फैसल अहमद खान साहब याचिकाकर्ता के लिए ताल ठोक रहे थे, दूसरी तरफ राज्य सरकार और अन्य प्रतिवादी जिनमें से एक के लिए तो वकील साहब ने आज ही वकालतनामा दाखिल किया, क्या टाइमिंग! अपनी दलीलें तैयार करके बैठे थे।
याचिकाकर्ता की ओर से उपस्थित विद्वान अधिवक्ता ने शायद पिछली रात गहन पुनर्विचार किया। या हो सकता है, प्रतिवादी पक्ष के वकीलों की फौज और सरकारी कागज़ात का अंबार देखकर उन्हें लगा हो, अरे! इतनी मेहनत कौन करेगा?
अचानक वकील साहब खड़े हुए और बोले, माई लॉर्ड्स! पुनर्विचार के पश्चात्, हम इस रिट याचिका को वापस लेना चाहते हैं। हमें बस यह आजादी दे दी जाए कि हम अपनी शिकायतों के निवारण के लिए उपयुक्त मंच/न्यायालय में जा सकें।
तो जनाब लगभग सारे कागजात फाइल करने के बाद फीस भरने के बाद और जजों का कीमती समय लेने के बाद याचिकाकर्ता को अचानक याद आया कि शायद वो गलत पता लेकर आ गए थे!
कोर्ट ने भी सहर्ष स्वीकार किया। भई! कोर्ट का काम है न्याय देना, या कम से कम न्याय के लिए स्वतंत्रता तो देनी ही है।
उपरोक्त प्रस्तुत तर्क के आलोक में रिट याचिका को वापस लेते हुए खारिज किया जाता है तथा प्रार्थना के अनुरूप स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। न्यायालय का आदेश,
यह आदेश एक महान संदेश देता है, अगर आपकी याचिका चल न पाए, तो उसे सम्मानपूर्वक वापस ले लो! और हां, कोर्ट आपको यह आशीर्वाद भी देगा कि आप अपनी शिकायत लेकर किसी और गली, किसी और कोर्ट में जा सकते हैं, बशर्ते वह उपयुक्त हो।
याचिकाकर्ता ने आज कोर्ट को एक लंबी और शायद थकाऊ लड़ाई से बचा लिया। प्रतिवादी खुश कोर्ट खुश, और याचिकाकर्ता अब उपयुक्त मंच की तलाश में है।
